२७ नवंबर, १९६८

 

 वह जारी है... शरीरको लगता है कि वह समझना शुरू कर रहा है । स्वभावत: उसके लिये कोई विचार नहीं - बिलकुल कोई विचार नहीं है, परंतु चेतनाकी अवस्थाएं हैं । चेतनाकी ऐसी अवस्थाएं जो एक-दूसरेको पूर्ण करती हैं, एक-दूसरेका स्थान लेती है... यहांतक कि वह तो पूछता है कि कोई विचारके द्वारा कैसे जान सकता है; उसके लिये जाननेका, बोध प्राप्त करनेका एकमात्र तरीका है चेतना । और यह सामान्य दृष्टि- बिन्दुसे अधिकाधिक स्पष्ट होता जा रहा है और वह उसे अपने ऊपर भी लागू करता है, यानी, एक कार्य किया जाता है ताकि शरीरके सभी भाग सचेतन हों जायं, केवल उनमेंसे गुजरनेवाली शक्तियोंके बारेमें
 


 ही नहीं, बल्कि उसकी आन्तरिक क्रियाओंके बारेमें भी सचेतन हों । वह अधिकाधिक यथार्थ होता जा रहा है ।

 

    हां, सबसे बढ़कर यह : उसके लिये हर चीज चेतनाका तथ्य है और जब वह कुछ करना चाहता है तो वह प्रायः यह नहीं जान पाता कि कुछ करनेको मानसिक रूपसे कैसे जाना जाता है; उसे करनेकी विधिके बारेमें सचेतन होना चाहिये; और केवल अपने लिये हीं नहीं, अपने चारों ओरके लोगोंके लिये भी । यह एक इतना स्पष्ट तथ्य होता जा रहा है... फिर किसी औरसे कुछ समझना; उदाहरणके लिये, कोई चीज करनेका तरीका सीखना, उसके लिये तो, चीज करनेसे, उसमें चेतनाको लगानेसे ही सीखी जा सकती है । यह बात कि किसी औरको समझाना चाहिये, कोई और समझाने योग्य है... यह उसे खोखली, खोखली - रीति मालूम होती है ।

 

   और वह अधिकाधिक ऐसा होता जा रहा है ।

 

 ( मौन)

 

     माताजी, आपने मेरे अंतर्दर्शनके बारेमें कुछ नहीं बतलाया जिसमें मैंने आपको जमीनपर सीधा लेटे हुए देखा था ।

 

 (माताजी हंसती हैं) मेरा ख्याल है कि यह पूर्ण समर्पणका प्रतीक हैं । मैं पीठके बल लेटी थी न? ऐसा ही था न?

 

     जी, पीठके बल जमीनपर ।

 

 यह संपूर्ण समर्पणमें संपूर्ण ग्रहणशीलताकी मनोवृत्ति है । यह शरीरकी वृत्तिकी मूर्त्त अभिव्यक्ति होनी चाहिये ।

 

   क्योंकि सचमुच, मुझे पता नहीं कि कोई ''टुकड़े'', कोई अवयव ऐसे हैं जिनमें अभीतक वह चीज हो जिसे स्वाधीनताका भाव कहते है । वास्तवमें शरीरने अपना समर्पण कर दिया है, यानी, अब उसमें अपनी इच्छा नहीं रही - उसमें कोई कामना नहीं है, अपनी इच्छा नहीं है । वह मानो सारे समय ''सुनता रहता है''' -- सारे समय, मानों 'आदेश' पकड़नेके लिये (कान लगाये रहता है) ।

 

   वह अभी सीखना शुरू कर रह। है कि उस स्थान या क्रियाको कैसे पकड़ा जाय जो... मैं ''रूपांतरित'' तो नहीं कह सकती, क्योंकि यह एक बड़ा शब्द है, जो बाकीके साथ सामंजस्यमें नहीं है और अव्यवस्था पैदा

 

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 कर रहा हों । यह प्रति क्षणका प्रत्यक्ष दर्शन होता जा रहा है । जब कमी कोई ऐसी चीज होती है जो असाधारण मालूम होती है तो यह समझ होती है, यह चेतना होती है कि यह क्यों हुआ और यह कहां पहुचाएगी; किस तरह दीखनेवाली अव्यवस्था अधिक पूर्णताकी ओर ले जायगी । हां, ऐसा है । यह बिलकुल आरंभ है । लेकिन यह आरंभ हों चुका है । इसने कुछ-कुछ सचेतन होना शुरू कर दिया है और केवल अपने लिये ही नहीं, औरोंके लिये भी । उसने देखना शुरू कर दिया है कि चेतना (दिव्य चेतना) दूसरोंके अंदर किस तरह काम करती है; और कभी-कभी वास्तवमें विभाजनका बोध नहीं रहता (शब्द अनुभूतिके बहुत बाद आते है), विभित्रताका बोध रहता है : चीज बहुत मजेदार हों जाती है... विभिन्नता जो -- जिसे अलगावकी ''अर्गला'' कहा जा सकता है - सत्य चेतनामें पूर्णत: सामंजस्य-भरी होगी, एक ऐसी समग्रताका निर्माण करेगी जो अपने-आपमें मूर्त्त पूर्णता होगी (माताजी एक गोल चीजका संकेत करती हैं) । कही अड़चन है -- क्या हो गया है?... हां, क्या हों गया है?...

 

यह जानना बाकी है कि किसी कारण यह जरूरी था या यह अकस्मात् हों गया - लेकिन अकस्मात् कैसे हो सकता है!... क्योंकि इस क्षण (कोई विचार नहीं है, इसलिये जरा अस्पष्ट है), अभी ऐसा लगता है ... हम सीधे-सादे तौरपर कह सकते है : चेतनाकी आश्चर्यजनक प्राप्ति हुई है । उसे प्राप्त किया गया था, इसके दाम चुकाये गये थे, समस्त पीड़ा और अव्यवस्थाकी बड़ी कीमतपर... कल या आज (अब मुझे ठीक याद नहीं है), शायद कल एक समय समस्या बहुत ही तीव्र हो गयी और तब माना भागवत चेतनाने मुझसे कहा : ''इस सारी पीडामें यह मैं हू जो दुख भोग रही हू (भागवत चेतना, है न), मै कष्ट सह रही हू, लेकिन तुमसे अलग तरीकेसे ।', पता नहीं कैसे कहा जाय, यह ऐसा था । ऐसा लगा मानों भागवत चेतना उस चीजका अनुभव कर रही थी जो जो हमारे लिये दुःख-दर्द है । उसका अस्तित्व था, भागवत चेतनाके लिये उसका अस्तित्व था -- लेकिन हमारे तरीकेसे कुछ अलग । और फिर यह समझानेका प्रयास था कि चेतना. क्या है, एक ही समयमें हर चीजकी युगपत चेतना है । अपना भाव प्रकट करनेके लिये हम कह सकते हैं कि सब कुछ एक साथ था । दुःख-दर्द, अत्यधिक तीव्र अव्यवस्था और सामंजस्य, संपूर्णतम आनंद दोनों एक साथ, साथ-ही-साथ अनुभव होते हैं । स्वभावत: इससे दुख-दर्दकी प्रकृति ही बदल जाती है ।

 

    लेकिन वह पूरी तरह सचेतन है कि यह सब बकवास जैसी है, जो चीज है उसका अनुवाद नहीं है ।

 

  और यह प्रत्यक्ष दर्शन मी है कि इन अनुभूतियोंके द्वारा धीरे-धीरे हर एक समुच्चय (जो हमारे लिये शरीर है) अपने-आपको अभ्यस्त करता जा रहा है ताकि वह सत्य चेतनाको सह सकनेकी योग्यता प्राप्त कर लें । इसके लिये अनुकूलनकी गतिकी जरूरत होती हैं ।

 

      लेकिन श्रीअरविन्दने शायद 'विचार और झांकियां''मे लिखा है कि दुःख-दर्द आनंदकी तैयारी है ।

 

 हां, मुझे कहना चाहिये कि श्रीअर्रावंदकी बहुत-सी चीजें हैं जिन्हें अब मै समझना शुरू कर रही हू । और एक अलग ही ढंगसे ।

 

 ( मौन)

 

        यह अनुभव होना कि अब हम किसी चीजको छूने-छूनेको है और फिर . वह बच निकलती है । कोई चीज रह गयी है ।

 

       अभी बहुत दूर, दूर जाना है ।


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